मैं ने तो सोचा था अपनी सारी उमर तुझे दे दूँगा
मैं ने तो सोचा था अपनी सारी उमर तुझे दे दूँगा
इतनी दूर मगर थी मंज़िल चलते-चलते शाम हो गई|
निकला था मै तो झोली में लाल छिपाये बरन - बरन के
कुछ सँग खेले थे बचपन के कुछ सँग सोये थे यौवन के |
कुछ से चूम गई थी कलियाँ, कुछ से झूम गई थी गालियाँ
किन्तु डगौरी डाल गई पथ की कुछ ऐसी भूलभुलैया
जनम - जनम की जमा खो गई युग युग नींद हराम हो गई
मैं ने तो सोचा था अपनी सारी उमर तुझे दे दूंगा
इतनी दूर मगर थी मंज़िल चलते-चलते शाम हो गई
अगर अकेला होता तो मै शायद कुछ पहले आ जाता
लगा हुआ था पीछे मेरे विपदाओं का लम्बा ताता
कुछ तो थी जंजीर पाँव में कुछ थी कठिन चढ़ाई मगकी
कुछ रोके था तन का नाता कुछ टोके था मन का रिश्ता |
इसीलिए होगई देर कर देना माफ़ विवशता मेरी
सारी धरती मर जाएगी, अगर क्षमा निष्काम हो गई |
मैं ने तो सोचा था अपनी सारी उमर तुझे दे दूंगा
इतनी दूर मगर थी मंज़िल चलते-चलते शाम हो गई
जीवन एक श्लोक है जिसका सबसे सुन्दर भाष्य प्यार है
प्राण प्राण जिसकी धड़कन है, कण्ठ कण्ठ जिसकी पुकार हे |
प्रथम शब्द पर्याय जनमन का औ अंतिम सन्दर्भ मरण हे
एक यही है प्रश्न कि जिसको दुहराता जग बारबार है |
तो, मैंने दुहराया जब, तेरा नाम न जाने तो क्या
नीरज तो बदनाम हो गया, प्रीति मगर सरनाम हो गई ||
मैं ने तो सोचा था अपनी सारी उमर तुझे दे दूंगा
इतनी दूर मगर थी मंज़िल चलते-चलते शाम हो गई
- श्री गोपालदास ‘नीरज’ (श्री जवाहरलाल वर्मा से ३ मार्च १९६९ होली)